भटकती हैं मेरी यादें
उन पर्वतों के गलियारों में
कुदरत का खूबसूरत नमूना
पेश-ए-खिदमत
जिसकी रक्षा की है
देश के जवानों ने ।
कोई इज़्ज़त लूट रहा है इन वादियों की
कोई इज़्ज़त बचा रहा है अपने साथियों की
क्या समझ घास चरने गयी है
सब देश के चालक, समझदारों की ?
मख़मली बर्फ़, आग़ोश में भर पर्वतों को
मरहम लगाती उन जमे हुए अश्कों से
जिसे इंसानों ने पाट, पगडंडी बनाई
मार साथियों को हथियारों से ।
है वो जन्नत पर
उस जन्नत से उसका कोई वास्ता नहीं
यहां बैठे हैं कई राक्षस,
जिनका देवताओं जैसा कोई मुखौटा नहीं
जिंदादिली और ताकत का मिश्रण
जिया है मैंने इन आंखों से
साज-सज्जा में कोई कमी नहीं की
ईश्वर ने संजोया-तराशा है अपने हाथों से ।
ये मूर्ख इतना भी नहीं समझते
इसको बाँट-बाँट, खुद को बाँट रहे हैं
और सारा दोष असीम शाँत घाटियों पर
मढ़ने से बाज नहीं आते…
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कश्मीर की दर्दे दास्तां बिल्कुल सही ब्यां की है
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Yes, thanks
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